बीहड़ पहाड़ियों के बीच हर सुबह गूंजती है शिक्षा की घंटी, विष्णुदेव सरकार में संवर रहे हैं शिक्षा के मंदिर

बिट्टू सिंह राजपूत की रिपोर्ट

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दैनिक हाथोर समाचार।बलरामपुर-रामानुजगंज। जिले के सुदूर, पिछड़े और जनजातीय अंचलों में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के नेतृत्व में शिक्षा की जो अलख जगाई गई थी, वह अब कठिन पहाड़ियों को पार करते हुए गाँव-गाँव तक पहुँच रही है। ‘युक्तियुक्तकरण’ योजना के तहत विद्यालयों के समुचित पुनर्संयोजन ने इस बदलाव की नींव रखी है। इसका जीवंत उदाहरण है बलरामपुर विकासखंड का अत्यंत दुर्गम और पहाड़ी गांव बचवार, जहाँ शिक्षा अब केवल एक व्यवस्था नहीं, बल्कि उम्मीद की संजीवनी बन चुकी है।

बचवार गांव तक पहुँचने के लिए 8 से 10 किलोमीटर की खड़ी पहाड़ी पगडंडियां पार करनी पड़ती हैं, रास्ते में घने जंगल, वीरान चट्टानें और कई बार जंगली जानवरों का भी सामना करना पड़ता है। फिर भी रोज सुबह यहां विद्यालय में घंटी बजती है। यह कोई साधारण बात नहीं, बल्कि उन समर्पित शिक्षकों के प्रयासों का परिणाम है, जिन्होंने असुविधा को सेवा का माध्यम बनाया।

शिक्षक बना उम्मीद का पहरुआ

प्रधानपाठक श्याम साय पैकरा की पोस्टिंग जब युक्तियुक्तकरण के तहत बचवार में हुई, तब यह महज़ एक नियुक्ति नहीं थी, बल्कि गाँव के लिए उम्मीद का संचार था। पैकरा न केवल वहाँ रहकर बच्चों को पढ़ा रहे हैं, बल्कि गांव की सामाजिक चेतना में भी शिक्षा का बीज बो चुके हैं। वे कहते हैं, “जब पहली बार आया था, तो डर था कि इतने दूर और दुर्गम इलाके में कैसे टिकूंगा, लेकिन गांववालों का अपनापन और बच्चों की सीखने की ललक ने मुझे बांध लिया।”

गांव के बुजुर्ग लखन राम बताते हैं, “पहले सोचते थे यहां कोई शिक्षक नहीं रुकेगा। अब हमारे मास्टर साहब यहीं रहते हैं। बच्चे अब जंगल नहीं, स्कूल जाते हैं। यह हमारे लिए बहुत बड़ा बदलाव है।”

पगडंडी से शाला भवन तक: संघर्ष और समर्पण

शिक्षक पंकज एक्का ने जब गांव में शिक्षा की अलख जगाई, तब कोई भवन नहीं था, न सुविधाएं। पहाड़ियों के बीच एक झोपड़ीनुमा कक्ष में बच्चों के साथ पढ़ाई शुरू हुई। बरसात में फिसलन और गर्मियों की धूप के बीच भी वे डटे रहे। उन्होंने न केवल शिक्षा दी, बल्कि गांव के लोगों को भी यह यकीन दिलाया कि शिक्षा से ही भविष्य संवरेगा।

जब जिला प्रशासन ने विद्यालय भवन के लिए स्वीकृति दी, तो सामग्री – टिन, सीमेंट, लोहे के एंगल – गांववाले खुद कंधों पर लादकर ऊपर तक ले गए। किसी ने मजदूरी नहीं मांगी, यह उनकी भावनात्मक भागीदारी थी।

अब गांव में है ज्ञान की रौशनी

विद्यालय में अब नियमित शैक्षणिक गतिविधियाँ चल रही हैं। समूह अध्ययन, खेलकूद, कहानी-कविता और प्रायोगिक शिक्षा के माध्यम से बच्चों में रुचि और समझ दोनों बढ़ रही है। माता-पिता भी बच्चों को पढ़ते देखकर गर्व महसूस कर रहे हैं।

बचवार गांव अब न केवल शिक्षा का उदाहरण बन गया है, बल्कि यह साबित कर रहा है कि यदि शिक्षक समर्पित हो और नीति जनोन्मुखी हो, तो पहाड़ भी ज्ञान की भूमि बन सकते हैं।

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